(500 words)raksha bandhan essay in hindi | essay in raksha bandhan 2018
Raksha Bandhan Essay in Hindi – रक्षा बंधन पर निबंध
raksha bandhan essay in hindi
“कितना पावन, कितना निर्मल राखी का त्योहार राखी के पावन धागों में छिपा बहन का प्यार।”
भूमिका – रक्षाबंधन का त्योहार भाई-बहन के पवित्र स्नेह का प्रतीक है । यह हिंदुओं का विशेष त्योहार है । भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक ऐसा त्योहार विश्व के किसी भी देश में नहीं मनाया जाता । श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाए जाने के कारण इसे श्रावणी नाम से भी जाना जाता है ।
पौराणिक एवं ऐतिहासिक संबंध – इतिहास को देखने पर रक्षाबंधन के तीन रूप नजर आते हैं । सर्वप्रथम रक्षा की कामना के रूप इसका हुआ । युद्ध समय, व्यापार प्रतीक के में प्रयोग भूमि में जाते के लिए विदेशों में समुद्र यात्रा पर जाने से पहले पत्नियां, परिवार के अन्य सदस्य, ब्राह्मण आदि रक्षा सूत्र बांधकर पुरुष के सुरक्षित लौटने की कामना करते थे । इस बात के कई उदाहरण मिलते हैं । कहते हैं कि देवों तथा असुरों के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ जाने पर इंद्र ने युद्ध भूमि में जाने से पूर्व उसकी पत्नि शची ने अपने पति की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था । इसका दूसरा रूप हमें उस समय देखने को मिलता है जब आश्रितों द्वारा सशक्तों की कलाई पर रक्षासूत्र बांधकर उनसे प्रण लिया जाता था कि वे उनकी रक्षा करेंगे । इसके प्रमाण गुरुकुल प्रथा में मिलते हैं । गुरुकुलों में इस दिन अध्ययन एवं अध्यापन का नववर्ष प्रारंभ होता है । इस दिन राजे-महाराजे गुरुकुलों में जाकर यज्ञ में भाग लेते हैं और वेद, ब्राह्यण एवं गौ-रक्षा का प्रण लेते हैं । तब ऋषि-महर्षि राजाओं की कलाईयों पर रक्षासूत्र बांधते थे । सिकन्दर एवं पोरस कें मध्य युद्ध में सिकन्दर की प्रेमिका ने पोरस की कलाई पर राखी बांधकर अपने प्रेमी. की प्राण रक्षा का वचन लिया था । यही कारण है कि सिकन्दर वध के बार-बार अवसर मिलने पर भी पोरस ने सिकन्दर का वध नहीं किया । संभवत : राखी बांधने के कारण मुंहबोली बहन के सुहाग की रक्षा के लिए ऐसा किया होगा । इसी प्रकार जब बहादुर शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण किया तो चित्तौड़ की महारानी कर्मवती ने मुगल शासक हुमायूँ को राखी भेजी थी तथा हुमायूँ ने कर्मवती की रक्षा भी की थी । राखी के धागे में इतनी शक्ति है कि एक विधर्मी भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह सका ।
पर्व मनाने का ढंग – रक्षाबंधन का त्योहार भाई-बहन के संबंध को और भी मधुर एवं प्रगाढ़ बना देता है । इस दिन बहनें अपने भाई के हाथ में राखी बांधकर उनसे अपनी रक्षा का व्रत लेती हैं तथा भाई की दीर्घायु की कामना करती हैं । भाई बहन की रक्षा का वचन देता है । आजकल भाई अपनी सामर्थ्य अनुसार बहन को उपहार भी देता है । राखी से कुछ दिन पहले ही बाजार राखियों, उपहारों एवं मिठाईयों से सजे होते हैं । इसका प्रारंभिक रूप मौली का धागा था परंतु आज के आडम्बर प्रधान युग में राखियों में भी आडम्बर दिखाई देता है । बहनें राखी, मिठाई एवं फल आदि चीजें भाई को भेंट करती हैं तथा भाई आशीर्वाद तथा उपहार या रुपये देता है ।
आश्रितों की रक्षा से होता हुआ आज यह त्योहार विशेषकर भाई द्वारा बहन की रक्षा के भाव तक सीमित होकर रह गया है । इस परिवर्तन का कारण समकालीन राजनैतिक परिस्थितियां थीं जिसमें बहन की रक्षा करना भाई का उत्तरदायित्व हो गया । प्राचीनकाल में वैसे तो .स्त्रियां तलवारबाजी, घुड़सवारी आदि में प्रवीण थी तथा अपनी रक्षा स्वयं कर सकती थी परंतु आपत्ति के समय रक्षा सूत्र बांधकर भाईयों की सहायता भी लेती थी ।
उपसंहार – आजकल राखी के त्योहार की पवित्रता धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है तथा सच्चे प्रेम का स्थान खो गया है । बहन कोकेवल धन या उपहार देकर भाई का कर्त्तव्य समाप्त नहीं हो जाता । हमें राखी के त्योहार की पवित्रता को भी ध्यान में रखना चाहिए तथा आजीवन बहन की रक्षा का व्रत लेना चाहिए । राखी का महत्त्व उसकी सुन्दरता में नहीं बल्कि उन धागों में छिपी प्राचीन परंपरा एवं भाई-बहन के प्यार की पवित्र भावना में है ।
रक्षाबन्धन:-भाई बहन के स्नेह का प्रतीक
शाश्वत स्नेह और सुरक्षा की दृष्टि से आश्वस्त करने वाला यह त्योहार भाई-बहन के प्रेम का साक्षी एक पवित्र साँस्कृतिक त्योहार है । यों यह मुख्य रूप से हिन्दू जाति और धर्मावलम्बियों के घरी में ही मनाया जाता है; पर अन्य जातियो के व्यक्तियों को भी राखी बान्धते बन्धवाते पूर्व इतिहास में तो देखा ही गया है, आजकल भी अक्सर दिखाई दे जाया करता है । कई बार हिन्दू बहनें किसी मुस्लिम या अन्य जाति-वर्ग के भाई को राखी बान्धती हुई दिखाई दे जीती हैं ।
इसी प्रकार हिन्दू भाई अन्य जाति की बहनो से आग्रहपूर्वक पवित्र राखी के धागे कलाई पर बन्धवा कर उनके प्रेम और सुरक्षा का दायित्व अपने-आप पर लेते हुए सुने-देखे जाते हैं । इस प्रकार प्रमुख रूप से वह बहन-भाई के पवित्र प्रेम और अटूट रिश्ते-नाते को रूपायित करने वाला त्योहार ही है । रक्षाबन्धन या राखी का यह पर्व कब, क्यों और किस प्रकार आरम्भ हुआ, पुराण-इतिहास में इस का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । ही, विशेष अवसरो पर वहाँ पुरोहितो द्वारा अपने यजमानो की दाहिनी कलाई मे रक्षा या मंगल कामना करते हुए एक मौलिसूत्र बाँधने का वर्णन या विधान अवश्य मिलता है ।
बाद में यह विधान भी मिलने लगता है कि हिन्दू राजा और सामन्त आदि जब युद्ध करने जाया करते थे, तब उनकी माताएँ, बहनें और पत्नियाँ उनके माथे पर अक्षतकुंकुम का केसर लगा कर एक मौलि सूत्र उन की विजय एवं मंगल-कामना करते हुए अवश्य बाँध दिया करती थीं । अनुमान होता है कि इसी रीति ने धीरे-धीरे विकास कर के रक्षाबन्धन का स्वरूप धारण कर लिया होगा । बाद में शान्ति काल में इस का विधान केवल भाई-बहनों तक ही रूढ एवं सीमित हो कर रह गया होगा । आज रक्षाबन्धन का त्योहार बहनो द्वारा अपने भाईयों की कलाइयों पर सुन्दर-संजीली राखियाँ बान्धने. बदले में कुछ धन पाने तक ही सीमित होकर रह गया है । ही, पुजारी-पुरोहित भी इस दिन अपने यजमानों की कलाई पर लालसूत्र बाँध कर बदले में कुछ दक्षिणा प्राप्त करते हुए आज भी दिखाई दे जाते हैं ।
इसे मात्र परम्परा को निबाहे जाना ही कहा जा सकता है । कभी राखी के कच्चे धागों के बन्धन के प्रभाव एवं शक्ति को अचूक माना जाता था, इस तथ्य में तनिक भी सन्देह नहीं । इतिहास इस बात का जीवन्त गवाह- है कि जब कभी भी किसी जातीय या विजातीय भाई को किसी बहन ने राखी भिजवाई, उसे पवित्र प्रेम का अमर- निश्छल निमंत्रण मान कर उस भाई ने अपने दुःख-सुख, संकट-विपदा आदि की परवाह किए बिना प्राण-पण की बाजी लगा कर मुँह बोली बहन के वचन की रक्षा के लिए अपने सर्वस्व की बाजी लगा दी । चित्तौड के महाराणा संग्राम सिंह की मृत्यु के बाद जब सुल्तान बहादुरशाह ने चारों ओर से चित्तौड गढ को घेर लिया था, तब अपने-आप को नितान्त असहाय पाकर महारानी कर्मवती ने शहनशाह हुमायूँ को राखी भिजवा कर अपने राज्य की रक्षा के लिए मौन निमंत्रण दिया ।
राखी की पवित्रता और महत्त्व को समझने वाले हुमायूँ स्वयं शेरशाह सूरी के आक्रमणो से आतकित रहने पर भी मुँहबोली बहन कर्मवती के चित्तौड की रक्षा के लिए भागे आए थे । यह ठीक है कि समय पर न पहुँच पाने के कारण वे चित्तौड को पराजित होने और कर्मवती को जौहर की ज्वाला में जल मरने से बचा नहीं पाए, पर बाद में बहादुर शाह को पराजित कर और मेवाड के असली वारिस (उदयसिंह) को उसके राज्य पर अधिष्ठित करवा कर उन्होने राखी का मोल भरसक चुका दिया । इस प्रकार इस ऐतिहासिक घटना ने रक्षाबन्धन जैसे पवित्र पर्व का महत्त्व निश्चय ही और बढ दिया !
आज भी रक्षाबन्धन का पर्व आने पर बाजार रंग-बिरंगी राखियों से भर जाते हैं । राखी खरीदने वाली बहनो की बाजारों में भीड-भाड भी काफी रहा करती है । मिठाइयों की दुकानें और स्टील भी भरे-पूरे एवं सजे-धजे रहा करते हैं । वहाँ भी खूब खरीददारी होती है । रक्षाबन्धन वाले दिन सजी-धजी बहनों की भीड घरों, बाजारों, बसों, स्कूटरों, कारों आदि में अपनी-अपनी हैसियत के साथ सर्वत्र देखी-परखी जाती है । लेकिन अब यह सब मात्र एक परम्परा का निर्वाह, एक औपचारिकता बनकर ही अधिक रह गया है । आज राखी बान्धने के बाद बहनें गिनती करती हैं कि उसके भाई ने उसे कितने नोट आदि दिए । यह देखती भी हैं कि उसने अपनी हैसियत और उस (बहन) के स्टेटस के अनुसार दिया है कि नहीं ।
विवाहित बहनों से पतियों -सासों आदि द्वारा पूछा-परखा जाता है कि राखी बाँध कर वह कितनी उगाही कर लाई है । स्पष्ट है कि इस प्रकार की पूछ-ताछ और जाँच-परख बहन-भाई के पवित्र स्नेह बन्धन की कसौटी, होकर हैसियत जानने-देखने की कसौटी ही हुआ करती है । इसी कारण आज रक्षाबन्धन का पावन त्योहार भी अन्य सभी त्योहारों की तरह एक लकीर को पीटे जाना ही प्रतीत होने लगा है और उचित ही लोग इस तरह की औपचारिकताओं का विरोध करने लगे हैं । ठीक डग और सच्चे मन से मनाए जाकर ही पर्व और त्योहार किसी जाति की साँस्कृतिक जीवन्तता के प्रतीक एवं परिचायक बने रहा करते हैं ।
त्योहारों के अवसरो पर व्यक्त परम्पराओं और रीति-नीतियों के उचित निर्वाह से ही किसी संस्कृति के उदात एवं सात्विक गुण भी उजागर हो पाया करते हैं । अत: यदि हम लोग रक्षाबन्धन की पावन अंतरंगत एवं साँस्कृतिक उच्चता को ध्वस्त नहीं होने देना चाहते, तो हमें उसमें आ गई औपचारिकता का निराकरण करना ही होगा ।
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